रविवार, 1 अगस्त 2021

कलम को माँ तू मेरी कामधेनु कर दे

           सरस्वती-वंदना 

हे वीणापाणि वंदना के स्वर दे तू ऐसे मुझे,
वंदन से तेरा अभिनंदन मैं कर दूं ।
हे माँ शारदे वाणी के शब्दों में वो शक्ति दे जो,
प्राणी मात्र के हृदय का क्रंदन मैं हर लूँ ।।

भर दे मेरे लफ्जों में अनुरक्ति का रंग ऐसा,
कोना-कोना महक उठे मानव के मन का ।
कविता के भावों में वो भावना के भाव दे दे,
रोम-रोम जग रूठे मानव के तन का ।।

वसुधा है तप रही हिम भी पिघल रही,
सागर-समीप सारे द्वीप डूब जा रहे ।
संकट निकट दिख रहा भावी पीढ़ियों पे,
विज्ञान-भूगोलवेत्ता सब यही गा रहे ।।

पल-पल प्रकृति विकृत होती जा रही,
विकास ने विवेक का हरण कर लिया है ।
अंधानुकरण कर कर के मानव ने,
विनाश के कुपथ का वरण कर लिया है।।

खोल दे ललाट के कपाट जन-जन के माँ,
ममतामयी कृपा हे जननी तू कर दे।
तुतलाती बोलियां धरा पे खिलखिलाती रहे,
धरती-पुत्र ध्यान अपने धरणी का धर ले ।।

बेहिचक भाल भेंट कर सके भारती को,
ऐसा साहस हर तन-मन में भर दे ।
लेखनी से हो जाए समाधान समस्याओं के,
कलम को माँ तू मेरी कामधेनु कर दे ।।

मंगलवार, 20 दिसंबर 2016

                                                                   ज़िंदगी 
ज़िंदगी किसको खुली छूट,  यहाँ देती है। 
ज़िम्मेदारियों का कड़वा, घूँट पिला देती है॥ 
कोई भी न जा सकता इसके परिधि से परे, 
झटके में याद, छठी का दूध दिला देती है॥ 

हज़ारों ख़्वाहिशों को चंद, चाहतों में सिमट देती है। 
कभी-कभी तो हालातों से, खुद ही निपट लेती है॥ 
भरते हैं हम जब भी कुलाँचे, कुरंग की तरहा, 
ज़िंदगी शेर की जानिब, हमको झपट लेती है। 

कभी बे-रंग कभी, सतरंगी रंग लेती है। 
हर मोड़ पर अनौखा, अनुभव संग देती है॥ 
बुझानी पड़ती है कभी, प्यास ओस चाटकर, 
ज़िंदगी दामन में कभी, समंदर को सिमेट देती है॥ 

ज़िंदगी तेरा काम है, तू रंग बदलती रह।
जब जो चाहे तू, वो चाल चलती रह॥ 
हम भी कर्मवीर हैं, अपने हुनर में दम रखते हैं,
हम पात-पात और तू डाल-डाल चलती रह ॥ 

जी भर कर ले कोशिश मुझे, बे-नूर करने की । 
चल ले कुटिल चालें, मुझे मज़बूर करने की॥ 
मेरे होंसलों की आग, अभी तूने देखी कहाँ हैं,
मैंने कर ली है पूरी तैयारी, तुझे मशहूर करने की ॥ 

'प्रकाश माली'

रविवार, 11 दिसंबर 2016

तेरी यादों को याद कर-कर के, 
मैं जी रहा हूँ रोज मर-मर के । 
तेरी यादों कोई कतरा कहीं, मिल जाए,
मैं जल रहा हूँ रोज जल -जल के॥

मंगलवार, 11 अक्तूबर 2016


 विजयदशमी मंगलमय हो!

"मन की लंका में पल रहा, विकारी-रावण जल जाए । 
हो रही कैद 'शक्ति-सीता', उत्साही राम से मिल जाए॥ 
आपके जीवन में चहुँ ओर, समृद्धि रामराज्य सी हो, 
मन की रणभूमि में चल रहे, हजारों युद्ध थम जाए ॥"

रविवार, 2 अक्तूबर 2016

मेरे रोम–रोम में सावन सा छा जाता है....


        मेरे रोम–रोम में सावन सा छा जाता है
तेरे हुश्न के निखार का खयाल,  जब दिल में आता है ।
                      मेरे बदन के रोम रोम में,  सावन सा छा जाता है ॥
तेरी अज़नबी अदाएं,  बनकर तस्वीर घूमती हैं।
                     मेरे मन की  कल्पनाएं, तुम्हें अनगिनत बार चूमती है॥ 
मेरा दिल लगता है तड़पने, तेरा सामिप्य पाने को ।
                    तेरी ज़ुल्फों में हाथ डालकर, आँखों से आँख मिलाने को॥
पर जब तुम पास में होती हो, रुक जाती है मेरी सांसें।
                    मिल नही पाती नज़रों से नज़र, झुक जाती है क्यूँ आँखें॥
ये कितना नाज़ुक रिश्ता है, कुछ मेरे समझ नहीं आता है।
                   तेरे हुश्न के निखार का खयाल, जब दिल में आता है ।।
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कशिश आज़ भी है........



कशिश आज़ भी है........
कशिश आज़ भी है, मेरे दिल में तुम्हें पाने की ।
                   तेरी धड़कनों की आवज़ तेरे ज़िस्म की खुशबू लेने की॥
कैसे यौवन-पुष्प अपनी ही, सौरभ में सिमट रह पायेगा ।
                  कोंपल सा कोमल वदन, कैसे घूँघट में छिप रह पायेगा।।

देखो कितना है अमित तुममें, यह आप्लावित सौंन्दर्य।।
                 लोलुप है इसको पाने को,मानव क्या सुर गंधर्व ॥
क्या वो वादे वो कसमें तुमनें दर्द देने को खाई  थी।
                मेरे दिल के हिम-पर्वत में तुमने क्यूँ आग लगाई थी॥

क्यूं मेरी जीवन सरिता में तुम, यौवन पुष्प बहाती हो।।
               अपने तन की खुशबू से अम्बु, उद्वेलित कर जाती हो।।
सोचो क्या यह पुष्प अनवरत, यूँ ही तैरता जायेगा ॥
              पग-दो पग आगे ये प्रेम-भँवर में, आप्लावित में जायेगा॥
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तुम चुपके चुपके आ जाना......


         तुम चुपके-चुपके आ जाना

अम्बर की चुनरी में अनगिनत, सितारे जब झिलमिलाते हों।
              स्वर्णिम चांदनी जब अपने,  सम्पूर्ण यौवन से चमकती हो।।
चन्द्र-प्रभा से आहत , जब तुम्हारी रजस्वला मचलती हो ।  
            निर्झर से रिसता  नीर,  जब कल-कल स्वर में गाता हो ।।
फूलों का गुल गुलशन पराग, खुशबू से वसुधा नहलाता हो।
             मधुमास प्रकृति के रग-रग में, बसंत बहारें महकाता हो ।
तुम चुपके-चुपके आ जाना, मन्मथ जब तुम्हें सताता हो ।।
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पुनर्मिलन



पुनर्मिलन
तन्हाईयों के आलम में,  जब याद तुम्हारी आती है ।  
                   दुनियाँ की सोती रातों में,  मेरी रज़नी जग जाती है॥
तेरी यादों का अम्बु-स्पर्श, अकुलाई आँखें खोलता है।  
                 फिर अतीतास्मृतियों को, अपने ज़हन में टटोलता है॥
चिर स्मरणीय कुछ पल-मधुकर, स्मृति-सुमन पे मँडराते हैं।  
                 अपनी मनमोहक गुन-गुन रुत में, स्मृति-रस पी जाते हैं॥
पागल सा बना मैं पल-अलि को, अपलक निहारता रहता हूँ।  
                उन सुखद क्षणों से पुनर्मिलन की,  विकल प्रतिक्षा करता हूँ॥

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