रविवार, 1 अगस्त 2021

कलम को माँ तू मेरी कामधेनु कर दे

           सरस्वती-वंदना 

हे वीणापाणि वंदना के स्वर दे तू ऐसे मुझे,
वंदन से तेरा अभिनंदन मैं कर दूं ।
हे माँ शारदे वाणी के शब्दों में वो शक्ति दे जो,
प्राणी मात्र के हृदय का क्रंदन मैं हर लूँ ।।

भर दे मेरे लफ्जों में अनुरक्ति का रंग ऐसा,
कोना-कोना महक उठे मानव के मन का ।
कविता के भावों में वो भावना के भाव दे दे,
रोम-रोम जग रूठे मानव के तन का ।।

वसुधा है तप रही हिम भी पिघल रही,
सागर-समीप सारे द्वीप डूब जा रहे ।
संकट निकट दिख रहा भावी पीढ़ियों पे,
विज्ञान-भूगोलवेत्ता सब यही गा रहे ।।

पल-पल प्रकृति विकृत होती जा रही,
विकास ने विवेक का हरण कर लिया है ।
अंधानुकरण कर कर के मानव ने,
विनाश के कुपथ का वरण कर लिया है।।

खोल दे ललाट के कपाट जन-जन के माँ,
ममतामयी कृपा हे जननी तू कर दे।
तुतलाती बोलियां धरा पे खिलखिलाती रहे,
धरती-पुत्र ध्यान अपने धरणी का धर ले ।।

बेहिचक भाल भेंट कर सके भारती को,
ऐसा साहस हर तन-मन में भर दे ।
लेखनी से हो जाए समाधान समस्याओं के,
कलम को माँ तू मेरी कामधेनु कर दे ।।

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