रविवार, 2 अक्तूबर 2016

कशिश आज़ भी है........



कशिश आज़ भी है........
कशिश आज़ भी है, मेरे दिल में तुम्हें पाने की ।
                   तेरी धड़कनों की आवज़ तेरे ज़िस्म की खुशबू लेने की॥
कैसे यौवन-पुष्प अपनी ही, सौरभ में सिमट रह पायेगा ।
                  कोंपल सा कोमल वदन, कैसे घूँघट में छिप रह पायेगा।।

देखो कितना है अमित तुममें, यह आप्लावित सौंन्दर्य।।
                 लोलुप है इसको पाने को,मानव क्या सुर गंधर्व ॥
क्या वो वादे वो कसमें तुमनें दर्द देने को खाई  थी।
                मेरे दिल के हिम-पर्वत में तुमने क्यूँ आग लगाई थी॥

क्यूं मेरी जीवन सरिता में तुम, यौवन पुष्प बहाती हो।।
               अपने तन की खुशबू से अम्बु, उद्वेलित कर जाती हो।।
सोचो क्या यह पुष्प अनवरत, यूँ ही तैरता जायेगा ॥
              पग-दो पग आगे ये प्रेम-भँवर में, आप्लावित में जायेगा॥
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